मुझमें ही है राम, मुझ ही में रावण,
कभी मैं बनूँ राम, तो कभी मैं रावण।
जब तक प्रेम के वश में रहूँ, मैं रहूँ राम,
प्रेम को वश में 'गर करूँ तो मैं रावण।
परमार्थ जियूँ जब तक, मैं रहूँ राम,
पर हो 'गर स्वार्थी जीवन, तो मैं रावण।
सारा जग मुझमें है, मै सारे जग में
अहम से निकलूँ 'गर, मैं हर कण में।
मैंने कल जन्म लिया था यहाँ
कल मुझे ही छोड़ना है ये जहाँ।
हूँ जगत के इस पार आज मैं ही,
उस पार भी जाना है कल मुझे ही।
मै नश्वर हूँ, जल जाएगा ये शरीर,
मैं ही हूँ आत्मा, जो रहेगा अमर।
मैं हूँ शून्य, उसका पूर्ण भी स्वयं ही
शून्य - पूर्ण की अनंत कड़ी भी मैं ही।
मैंने पाप किया है, किये पुण्य भी
मैंने कष्ट दिया है, भोगी भी मैं ही।
जो भी लूटाया है, उसे ही पाया भी,
कर्म हूँ मैं और परिणाम भी मैं ही।
मैं ही सत्य हूँ और मैं ही मिथ्या,
मै ही नाविक हूँ और मैं ही खेवैया।
मैं ही प्रश्न हूँ और मैं ही उसका उत्तर
जो भी ढूँढू वह सब है मेरे ही भीतर।
जो अँधेरापन है, उसकी रौशनी मुझीमें
जो मेरी मंजिल है, राह उसकी मुझी में।
मुझमें ही है अमृत, विष भी है मुझी में
जो दर्द है भीतर, उसकी दवा भी मुझी में।
मैं विजयी हूँ और पराजित भी मैं ही
प्रेम को जीता है मैंने, हारा भी प्रेम से ही।
मैं ही शोला हूँ, और शबनम मैं स्वयं ही,
मैं ही कर्त्ता हूँ, उसका स्त्रोत औ' प्रारब्ध मैं ही।
©amritsagar
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