उस कवि से क्या कहूं
ख्वाब जिसने बुने कई
पर उन्हें कभी सजा न पाया,
दिल में उमड़ते तरंगों को
कभी शब्दों में गा ना पाया;
प्यार तो था बेशुमार भीतर
पर लबों पर कभी ला न पाया,
मन की बात मन में दबा गया,
राज सारे साथ अपने ले गया
कब्र में सब यूं ही दफन हो गया;
जीवन पर्यन्त बस यही मानता रहा,
शब्दों से उसका सरोकार नहीं,
भावों को शब्दों की दरकार नहीं,
भीतर के कवि को यूं ही घोटता रहा,
बिन कहे सुनाने का ढोंग करता रहा;
जहां संवेदना है, वहां कवि है,
कवि की भला कौन जाति होती है,
कवि तो हर रंग, रूप व भेष में है,
समय से परे वो हर परिवेश में है,
बस उसे शब्दों की गरज़ होती है;
©अनुपम मिश्र
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