Friday 12 June 2020

छिछोरे

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#छिछोड़े

हम सभी अपनी सोच को इतनी महत्ता देते हैं कि किसी और की सोच हमारे लिए कोई मायने ही नहीं रखती। हमें क्या चाहिए, हमारे क्या सपने हैं, हमारी क्या अपेक्षाएं हैं, हमारे हिसाब से ही हम अपने आस पास सबको ढाल लेना चाहते हैं।
चुकि,सब पर तो अपना बस नहीं चल सकता, इसलिए उन पर ही अपना जोड़ आजमाते हैं, जो हमारे ऊपर किसी न किसी तरह से आश्रित हैं।
कितने ही माता पिता अपने अपूर्ण सपनों को अपने संतानों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। "तुम ये न कर पाए तो हमारी नाक कट जाएगी," "ऐसा नहीं बन पाए तो लोग क्या कहेंगे," "अगर ये तुम हासिल नहीं कर पाए, तो मैं किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहूंगा," " वो मेरे टुकड़ों पर पलने वाले के बच्चे तो टॉपर बन गए पर तुम अगर इतना भी न के पाए तो धिक्कार है मेरी परवरिश पे!"

शिक्षा के क्षेत्र में दस वर्षों से तल्लीन हूं, हर नए वर्ष में नए बैच के साथ  नए नए माता पिता से भी मिलना जुलना होता रहा है। हर कोई एक जैसा नहीं होता! जहां आज भी कई परिवार शिक्षकों में गुरु का स्वरूप देख उनको वही आदर सत्कार देते हैं वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो शिक्षकों को अपना गुलाम मानते हैं, क्यूंकि वो फीस जो भरते हैं, और यही सीख अपने बच्चों भी देते हैं।
पर इस बात से तो कोई भी माता पिता इनकार नहीं कर सकते कि उन्हें अपनी संतान सबसे प्रिय होती है। उनका मन हमेशा यही होता है कि उनके बच्चे हमेशा ही अव्वल आए। जिनके बच्चे पढ़ने में अच्छे होते हैं वो स्पोर्ट्स में अच्छा चाहते हैं, जिनके स्पोर्ट्स में अच्छे होते हैं वो पढ़ाई में अच्छे होते हैं और कई मोहतरमा को तो इसलिए परेशान देखा है कि उनका बच्चा स्पोर्ट्स और पढ़ाई दोनो में अव्वल आता है। उन्हें इस बात की परेशानी खाती है कि अगर उनके बच्चे को आइंस्टाइन या तेंदुलकर में से कोई एक बनना हो तो उनका बच्चा कैसे चुन पाएगा कि क्या करना है।

खैर, इन सब विषयों को छोड़ कर एक आम विषय पर आते हैं, कि आखिर में मां बाप अपने बच्चे से चाहते क्या है। कई  लाखों की संख्या में परीक्षार्थी परीक्षा देते हैं और चयन होता है बस चंद हजारों में, हर मां बाप का यही सपना होता है कि उनका बच्चा न छटे। यदि इंजीनियरिंग की बात करे तो हर बच्चा यही सपना पाल के रखता है कि एक लाख में अगर हजार को चुना जा रहा है तो वो हजार की श्रेणी में आए, जो 90,000 छांटे जा रहे हैं उसमे नहीं।
(2017 के JEE Advanced मे 1,200,000 परीक्षार्थियों में से सिर्फ 11,000 बच्चों का चयन हुआ था।
"15.93L students to compete for 76K UG medical, dental seats")

तो क्या इस जगह पर माता पिता और हम शिक्षकों का ये दायित्व नहीं बनता कि उन्हें जीतने के लिए तैयार करने के साथ साथ उन्हें ये भी समझना कि अगर वो उस 1000 में नहीं भी आ पाते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं। उनकी तरह 90,000 और हैं। क्या वो सबके सब असफल कहे जाएंगे?
यही बात मुझे छिछोडे मूवी में बहुत चुभने वाली लगी, किसी नुकीली कांटे की तरह, जहां न जाने कितने ही बच्चे अपने आप को सिर्फ इसलिए नकारा और निक्कमा मानने लगते हैं क्यूंकि वो डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाते।
उसमे एक बच्चा सिर्फ इसलिए छत से कूद कर अपनी जान लेने की कोशिश करता है क्यूंकि उसका किसी परीक्षा में चयन नहीं होता जिसके लिए उसने 18 घंटे बैठकर तैयारी की थी। उसके मां और पापा दोनो ही टॉपर रह चुके थे, उसे इस बात का भय था कि उसकी इस नाकामी पर उसकी वजह से उसके मां बाप की बदनामी होगी।
और उसके कूदने के बाद पिताजी को ये समझ में आता है कि उन्होंने अपने बेटे से ये तो कहा कि उसके सफल होने पर वो सब उसको कितने धूम धाम से मनाएंगे, क्या क्या करेंगे अपनी उस प्रसन्नता में पर ये बताना भूल गए कि खुदा न खास्ता यदि असफल हो गए तो क्या करेंगे। सफलता के लिए तो तन मन धन सब खोल देते हैं पर असफलता पर सब बंद से हो जाते हैं। वो अपने बच्चे को समय पर ये शिक्षा नहीं दे पाते कि "तुम्हारा परिणाम ये निर्णय नहीं करता कि तुम जीते हो या हारे हो बल्कि तुम्हारी लगन, तुम्हारी कोशिश, तुम्हारी निष्ठा व तुम्हारी कर्तव्य परायंता इस बात का सबूत देती है कि तुमने क्या हासिल किया है।

हां, मैं भी असफल हुई थी। एक नहीं तीन बार प्रयास किया था, डॉक्टर बनने का पर नहीं कर पाई। पर आज जो भी हूं उससे काफी संतुष्ट हूं। जब अंदर झांकती हूं तो खुद पर हंसी आती है कि तीन वर्ष मैंने किसके लिए बर्बाद किए? मुझे तो खून देखकर ही चक्कर आते हैं। मैं किसी का घाव नहीं देख सकती। किसी का दर्द देखती हूं तो खुद भी रो पड़ती हूं। तिलमिला उठती हूं। भला मैं कैसी डॉक्टर बनती! ये कोई बहाना नहीं है, उस अंगूर को खट्टा कहने का जो नसीब न हुआ पर हां, खट्टे अंगूर मुझसे तो न निगला जाता है! और अपनी ये कहानी मैं अपने हर बैच को सुनाती हूं, ये बताने को कि उसमे असफल होकर भी मैं आज असफल नहीं। अपने आप पर गर्व है मुझे। कोई महल तो नहीं खड़ा किया है मैंने अपनी कमाई से, पर जो भी कमाती हूं पर्याप्त है, अपने लिए और अपने साधुओं के लिए। और उससे भी बड़ी बात ये है कि मैं जो भी कर रही हूं उसमे आंतरिक प्रसन्नता मिलती है, पूरे तन और मन के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करती हूं। अपने परिश्रम को कहीं भी चूकने नहीं देती। जिनको पढ़ाती हूं, उनको ही अपना सर्वस्व मानती हूं। मेरे स्वामी, गुरु व सेवक सब मेरे विद्यार्थी ही हैं, जिनसे हर वर्ष अपने अनुभवों में कुछ नया जोड़ने को मिल जाता है।

©अनुपम मिश्र

Stranger

Beloved Stranger,
Be whoever or whatever,
Destructor or preserver,
Infidel or a believer,
It's under your power,
You are your controller,
Let me be your lover forever,
I know not if I'm too older,
For me age is just a number,
In heart I'm still a toddler,
Longing for your amour,
Reckoning you as my charmer.
No intention to tame you,
Neither to ever blame you,
If someone better meets you
And the new life needs you,
You are free to be just you,
I'll never be there to cease you;
For me it won't be an issue new,
Life doesn't remain pink or blue,
This is what I always knew,
With such experiences I grew,
I'll be the first to bid you adiew,
If you feel I mean nothing to you.
© Anupam Mishra


Random thought


People forget
what's left blank
displays much more
than a few scribbles;
As the enormous sky
with several wonders
Looks blank set
hiding numerous stars.
© Anupam Mishra

Thursday 11 June 2020

ए ज़िन्दगी

ए ज़िन्दगी,
तुझसे कैसी शिकायत,
कैसी तुझसे कोई बेरुखी,
हां, कभी तू लगती पहेली सी,
कभी इकलौती सहेली सी;

एक आंगन में पली बढ़ी
दूसरे आंगन को बसाने चली,
एक एक कर दो कलियां खिली,
दोनों ही तेरी छोटी सी दुनिया बनी;

तूने देखा मुझे कभी हारते हुए,
कई बार गिर कर आंसूं बहाते हुए,
और फिर उन्हें पोछ आगे बढ़ते हुए,
तू सांस देकर रही पीछे ढाढस बढ़ाते हुए;

हां, एक दो बार मन हुआ मेरा भी,
दुख के भार से बोझल होकर यूं ही
धोखे से छोड़ तुझे भाग चलूं कहीं भी,
मौत को लगा गले उसके साथ चलूं कहीं;

पर क्षणिक था वो ख्याल, आया उस पल ही
और उसी पल धुएं सा विलीन हुआ कहीं,
देख दुखों का बढ़ता बाज़ार आस पास ही,
भीतर का दुख सिमट कर रह गया भीतर ही;

न तो मैं पहली हूं यहां, न ही आखिरी,
जिसने तेरे संग की है कभी बद सलूकी,
तो कभी तुझ पर प्यार सारी उड़ेल दी,
एक एक बूंद तेरी दिल में अपने उतार ली;

कैसी हूं देख मैं तेरी कद्रदान मनचली,
जो भी राह दिखाती है तू, मैं उधर चली,
राह में मिलाएं तूने जिससे भी जहां भी,
सभी को दुआ सलाम ठोकती चली।
©अनुपम मिश्र




Monday 8 June 2020

कविता

नमन नवोदित साहित्यकार मंच
दिनांक: 2/ 06/ 20
समय: 11:20 am
विषय : चित्र लेखन
विधा: कविता
शीर्षक: वृक्ष का क्रंदन

सांसों की अविरल धारा प्रवाहित है जिनसे,
रगों में रक्त का संचार संचालित है जिनसे,
भूख से तप्त शरीर होती तृप्त जिनके फल से,
उन वृक्षों की व्यथा क्या छिपी है किसी से?

आलीशान कंक्रीट के स्वर्णिम महल बसाने को,
इंसान काटता चला कितने ही वन उपवन को,
जिन्होंने अपने अस्तित्व से निखारा हर जीवन को,
क्या सुन पा रहा है मानव उन वृक्षों के क्रंदन को?

एक नन्हा सा बीज, न जाने कितना कुछ सहकर,
बढ़ता गया होगा, हर ताप, हर तूफान से लड़कर,
और जब वो लहलहा रहा होगा कहीं वृक्ष बनकर,
क्या रोया न होगा रोम रोम उसके कट के गिरने पर?

मानवी फितरत किसी को नष्ट करने की तो नहीं,
मानवता तो बस सृजनात्मकता पर टिकी है अब भी।

© अनुपम मिश्र

Decision

Whether to sit or stand straight, Whether to strol or run fast, Whether to end or start, Whether to go Left or Right; No way is wrong or Rig...