हमने सड़क के उस पार
एक स्त्रि को निराधार
बेबस और लाचार
जो चिथरा बिछाकर
रोकने को नवजात की चित्कार
करती खुद पर प्रहार
देती गालियाँ दो चार
माँगती दुआऐं हजार
इस उम्मीद में कि कोई तो
दे दे कुछ वहाँ आकर।
सोचती मैं उसे देखकर
क्या मजबूरी नहीं जहाँ में
उससे कोई भी बढ़कर
जो करने को जीवन बसर
हाथ फैलाना पड़े हर मोर पर,
क्या इतना है कर्मों का भार
जो दब जाता हर भीख पर?
काश कि वह समझ पाती
ज़िंदगी नहीं ऐसे जीयी जाती
तो यूँ न अपना पेट पालती
पर शान से जी रही होती
कर्म के फल खा रही होती।।
©amritsagar
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