दूर मंज़िल की तलाश में पत्थरिले रास्तों पर चलते रहे हम
क्षितिज पर अटके सूरज के साथ बढ़ते रहे हमारे कदम,
जो गिरकर लड़खड़ाये तो संभाला स्वयं ही अपना संयम,
नज़र जो टिकी थी टूटे बिखरे जोखिम रास्ते पर हरदम;
न कोई साथी न कोई सहारा, बस अकेले ही जूझ रहे हम
अपने कर्मों का पिटारा दिल में दबाये, तोड़ चुके सारे वहम,
कोई अपना पराया नहीं, सबके अपने अलग हैं परिमाण,
मुकद्दर की आजमाईश को सुलग रहे अपने भी अरमान।
©अनुपम मिश्र
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