परम तत्व परमेश्वर,
विस्तार का जिसके नहीं कोई छोड़,
जिसका न कोई आकार न प्रकार,
जिस पर संपूर्ण सृष्टि का भार;
बसा है जो सर्वत्र,
हर तत्व में, हर तर्क में,
स्वर्ग में, और नर्क में,
हर सख्श के कण कण में;
सृजन व विध्वंश इसकी नज़र में,
हर कर्म की खबर इसके फलक पे,
चाहे करे जुर्म कोई सबसे छिप के,
रूह देखता है सब साक्षी बनके;
ढल जाता ये उसके उसी रंग में,
जैसी फितरत होती जिसके मन में,
कोई देखता इसे सत्य और आस्था में,
तो कोई इसे ढूंढ़ता अपनी विवशता में!
©अनुपम मिश्र
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