तुझसे कैसी शिकायत,
कैसी तुझसे कोई बेरुखी,
हां, कभी तू लगती पहेली सी,
कभी इकलौती सहेली सी;
एक आंगन में पली बढ़ी
दूसरे आंगन को बसाने चली,
एक एक कर दो कलियां खिली,
दोनों ही तेरी छोटी सी दुनिया बनी;
तूने देखा मुझे कभी हारते हुए,
कई बार गिर कर आंसूं बहाते हुए,
और फिर उन्हें पोछ आगे बढ़ते हुए,
तू सांस देकर रही पीछे ढाढस बढ़ाते हुए;
हां, एक दो बार मन हुआ मेरा भी,
दुख के भार से बोझल होकर यूं ही
धोखे से छोड़ तुझे भाग चलूं कहीं भी,
मौत को लगा गले उसके साथ चलूं कहीं;
पर क्षणिक था वो ख्याल, आया उस पल ही
और उसी पल धुएं सा विलीन हुआ कहीं,
देख दुखों का बढ़ता बाज़ार आस पास ही,
भीतर का दुख सिमट कर रह गया भीतर ही;
न तो मैं पहली हूं यहां, न ही आखिरी,
जिसने तेरे संग की है कभी बद सलूकी,
तो कभी तुझ पर प्यार सारी उड़ेल दी,
एक एक बूंद तेरी दिल में अपने उतार ली;
कैसी हूं देख मैं तेरी कद्रदान मनचली,
जो भी राह दिखाती है तू, मैं उधर चली,
राह में मिलाएं तूने जिससे भी जहां भी,
सभी को दुआ सलाम ठोकती चली।
©अनुपम मिश्र
Nice Amazing
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